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Thursday 19 May 2016

गुणीभूत व्यंग्य

                              गुणीभूत व्यंग्य

जहाँ पर वाच्यार्थ की तुलना में व्यंग्यार्थ प्रधान या अधिक महत्वपूर्ण न होकर गौण होता है,वहाँ पर 'गुणीभूत व्यंग्य' माना जाता हैं। 'पंडितराज जगन्नाथ' के विचार से यह उत्तम काव्य के अंतर्गत हैं, क्योंकि व्यंग्यार्थ का अस्तित्व इस काव्य में है। चमत्कार चाहे व्यंग्यार्थ में हो या चाहे वाच्यार्थ में उसका अस्तित्व होने से काव्य उत्तम कोटि का होता है। 'मध्यम काव्य' व्यंग्यनिष्ट रहता है और 'अवर' या 'अधम' काव्य में व्यंग्यार्थ बिलकुल नहीं दिखाई देता, वह चित्र-काव्य मात्र है। गुणीभूत व्यंग्य के 'आठ' (८) भेद हैं:-
१)  अगूढ़ व्यंग्य
२) अपरांग व्यंग्य
३) अस्फुट व्यंग्य
४) असुंदर व्यंग्य
५)संदिग्धप्राधान्य व्यंग्य
६)तुल्यप्राधान्य व्यंग्य
७)काक्वाक्षिप्त व्यंग्य
८)वाच्यसिद्ध्यंग व्यंग्य
   
१)  अगूढ़ व्यंग्य:-
                   जहाँ व्यंग्यार्थ वाच्यार्थ के समान स्पष्ट प्रतीत होता है उसे 'अगूढ़ व्यंग्य' कहते हैं।
उदा.:-       "गोधन गजधन बाजीधन, और रतनधन खान।
                 जब आवत संतोष धन, सब धन धूरि समान।"
           यहाँ पर 'सब धन धूरि समान' में मुख्यार्थ की बाधा है, परंतु अर्थ यह निकलता है कि, सब धनों का महत्त्व समाप्त हो जाता है, जब सन्तोष आ जाता है। व्यंग्यार्थ यह निकलता है कि सन्तोष ही आवश्यक है, उसके सामने और धन व्यर्थ हैं। यह व्यंग्यार्थ अत्यंत स्पष्ट हैं।

२) अपरांग व्यंग्य:-
                    जहाँ पर रस,भाव,भावाभास आदि एक-दूसरे के अंग हो जाते हैं उसे 'अपरांग व्यंग्य' कहते हैं।
उदा.:-       "डिगत पानि डिगुलात गिरि, लखि सब ब्रज बेहाल।
                 कंप  किसोरी  दरस तें,  खरे लजाने लाल।।"
          यहाँ पर सात्विक भाव 'कंप' द्वारा व्यंजित रति स्थायी या श्रृंगार रस 'लज्जा' संचारी का अंग हो गया हैं। अतः अपरांग व्यंग्य हैं।

३) अस्फुट व्यंग्य:-
                   जहाँ पर व्यंग्य गूढ़ हो और बहुत प्रयत्न करने पर समझा जाए परंतु स्पष्ट न समझा जाए उसे 'अस्फुट व्यंग्य' कहते हैं।
उदा.:-         "खिले नव पुष्प जग प्रथम सुगंध के
                   प्रथम  वसन्त   में   गुच्छ   गुच्छ ।"
             यहाँ पर वर्णन प्रकृति का लगता है।इससे यह व्यंग्यार्थ बड़ी कठिनाई से ही निकल पता है की युवावस्था के आगमन में अनेक प्रकार की नवीन आशाएँ प्रकट हुई ।

४) असुंदर व्यंग्य:-
                    जहाँ पर वाच्यार्थ से निकलनेवाले व्यंग्यार्थ में कोई चमत्कार न हो, उसे  'असुंदर व्यंग्य' कहते हैं।
उदा.:-         "बिहँग सोर सुनि सुनि समुझि,पछवारे की बाग।
                   जाति परि पियरी खरी, प्रिया  भरी   अनुराग ।।"
              इस वाच्यार्थ में व्यंग्य है कि प्रिय से मिलने के लिए प्रिया अत्यंत व्याकुल है, जो वाच्यार्थ से भी स्पष्ट है और कोई चमत्कार नहीं रखता।

५) संदिग्धप्राधान्य व्यंग्य:-
                            जहाँ पर सन्देह बना रहे कि अर्थ में वाच्यार्थ प्रधान है अथवा व्यंग्यार्थ प्रधान है, उसे 'संदिग्धप्राधान्य व्यंग्य' कहते हैं।

६)तुल्यप्राधान्य व्यंग्य:-
                        जहाँ पर वाच्यार्थ और व्यंग्यार्थ दोनों ही समान चमत्कार के हों, उसे 'तुल्यप्राधान्य व्यंग्य' कहते हैं।
उदा.:-     "आज बचपन का कोमल गात। जरा का पीला पात।
             चार दिन सुखद चाँदनी रात। और फिर अंधकार अज्ञात।।"
           इस वाच्यार्थ का व्यंग्यार्थ यह हुआ कि सभी के दिन एक समान नहीं जाते। यह वाच्यार्थ के समान ही चमत्कारपूर्ण है,अतः यहाँ तुल्यप्राधान्य व्यंग्य हैं।

७)काक्वाक्षिप्त व्यंग्य:-
                        जहाँ पर काकू (कण्ठगत विशेष ध्वनि) के द्वारा व्यंग्य प्रकट होता है, वहाँ पर 'काक्वाक्षिप्त व्यंग्य' होता है।
उदा.:-        " हैं दससीस मनुज रघुनायक।
                   जिनके हनुमान से  पायक।।"
             यहाँ पर काकू से यह व्यंग्यार्थ निकलता है कि राम मनुज नहीं हैं अतः 'काक्वाक्षिप्त व्यंग्य' हैं।

८)वाच्यसिद्ध्यंग व्यंग्य:-
                         जहाँ पर निकलनेवाले व्यंग्यार्थ से ही पूरे पद के वाच्यार्थ की सिद्धि होती है, उसे ही 'वाच्यसिद्ध्यंग व्यंग्य' कहते हैं।

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